• ट्री सेंसस: भारत में कैसे गिने जाएंगे पेड़

    पेड़ों की कटाई, बढ़ते शहरीकरण और महंगी होती जमीनों के चलते भारत में हरे भरे इलाके यानि ग्रीन कवर लगातार घट रहे हैं. इससे जलवायु परिवर्तन और मरुस्थलीकरण जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं. ऐसे में ट्री सेंसस कराने का फैसला आया है

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    पेड़ों की कटाई, बढ़ते शहरीकरण और महंगी होती जमीनों के चलते भारत में हरे भरे इलाके यानि ग्रीन कवर लगातार घट रहे हैं. इससे जलवायु परिवर्तन और मरुस्थलीकरण जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं. ऐसे में ट्री सेंसस कराने का फैसला आया है.

    दिल्ली में हर घंटे पांच के करीब पेड़ गिराए जाते हैं. हाल ही में दिल्ली में पेड़ों की कटाई के मामले में हो रही सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में ट्री सेंसस कराने की अनुमति दी. यह काम देहरादून स्थित फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट को करना है जिसकी मदद से दिल्ली के ग्रीन कवर को बढ़ाने की ओर बढ़ा जा सके.

    हाल ही में, हैदराबाद में पेड़ों को बचाने के लिए कई तरह से विरोध जताया जा रहा था. वहीं दूसरी तरफ, और पेड़ लगाने के आदेश जारी हो रहे हैं. चूंकि हैदराबाद में पेड़ों की संख्या अधिक थी इसलिए यह मामला इतना उजागर हुआ. लेकिन सच्चाई ये है कि देश में रोजाना कई जगहों पर अनगिनत पेड़ों को काटा जाता है, कभी शहरीकरण के नाम पर तो कभी गैरकानूनी तरीके से और इन पेड़ों की जानकारी मिलना भी मुश्किल होता है. ऐसे में इस तरह के सेंसस ना केवल पेड़ों की संख्या जानने में काम आएंगे बल्कि पेड़ों की गैरकानूनी कटाई को रोकने में भी इससे मदद मिल सकती है.

    हर तीन में से एक पेड़ पर मंडरा रहा है खतरा

    ट्री सेंसस में कैसी जानकारी दर्ज की जाती है

    आसान शब्दों में ट्री सेंसस का मतलब है - किसी इलाके में मौजूद सभी पेड़ों की गिनती करना. इस प्रक्रिया में पेड़ों की गिनती की जाती है और उनके बारे में जरूरी जानकारी इकट्ठा की जाती है. पारंपरिक तरीके की बात की जाए तो इसके लिए विशेषज्ञ या वॉलंटियर्स, जिस क्षेत्र में पेड़ गिनने हैं, उस इलाके में जाते हैं और हर पेड़ की अलग-अलग जानकारी लिखते हैं. जैसे कि वहां कितने पेड़ हैं, वह किस प्रजाति के हैं, उनकी ऊंचाई और मोटाई कितनी है, उनकी हालत कैसी है यानि वे स्वस्थ हैं या नहीं, और वह किस जगह पर मौजूद हैं. इसके अलावा पेड़ों का कार्बन मास (यानि पेड़ में कुल कार्बन की मात्रा) इत्यादि भी दर्ज किया जाता है.

    लगातार मरुस्थलीकरण (डेजर्टीफिकेशन) की ओर बढ़ रहे भारत के बारे में 2019 में इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र) की एक रिपोर्ट आई थी. इसमें बताया गया कि भारत का 9.78 करोड़ हेक्टेयर, जो कि भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 30 फीसदी पर डेजर्टीफिकेशन का खतरा है. इसका एक मुख्य कारण पेड़ों की कटाई भी है, जिससे मिट्टी को भारी नुकसान होता है.

    इसके अलावा भारत ने 2070 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने की शपथ ली है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करना अनिवार्य है जिसमें पेड़ों की बहुत अहम भूमिका है. प्लांट साइंटिस्ट डॉ. स्मिथा हेगड़े ने अपनी रिसर्च में मैंगलोर में ट्री सेंसस पर काम किया था. उनकी किताब ‘द ट्री काउंट रिपोर्ट' में उन्होंने बताया है कि मैंगलोर की लगभग छह लाख जनसंख्या के लिए सार्वजनिक जगहों में लगभग 19 हजार पेड़ है. 2024 में दिए गए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, "नेट जीरो हासिल करने के लिए प्रति व्यक्ति एक पेड़ जरूरी है.”

    पेड़ों का मुख्य फायदा यह होगा कि शहरीकरण के साथ शुरू हुई समस्याओं जैसे प्रदूषण और भीषण गर्मी की वजह से बढ़ रही मौतों से तो निजात मिलेगी ही, साथ ही इस तरह के सेंसस स्मार्ट सिटी योजनाओं में भी मदद कर सकते हैं. ऐसे शहर, जहां प्रकृति और इंसान एक साथ रहें और प्रकृति, इंसान की जरूरतें पूरी करें और इंसान प्रकृति की.

    सेंसस के प्रचलित तरीके

    आधुनिक तकनीकों ने इसे कुछ हद तक सेंसस को आसान जरूर बनाया है, लेकिन अभी भी पूरी तरह से स्वचालित प्रणाली विकसित नहीं हो पाई है. जहां एआई जैसी आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से इसको करने के लिए विशाल बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होती है, वहीं पारंपरिक तरीके से यह कार्य करने में समय बहुत ज्यादा लगता है.

    दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट ने फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट को ट्री सेंसस की मंजूरी दी. इसके लिए लगभग चार वर्षों का समय निर्धारित किया गया है और साथ ही 443 लाख रुपये का बजट भी अनुमानित किया गया है. इससे मिले डेटा का उपयोग दिल्ली में ग्रीन कवर बढ़ाने की योजनाओं में किया जाएगा.

    दिल्ली मैंगलोर से करीब 8 गुना बड़ा शहर है. मैंगलोर शहर में ट्री सेंसस के बारे में डॉ. हेगड़े ने इंटरव्यू में बताया कि उस समय शहर के 50 वॉर्डों के लिए 40 स्वयंसेवकों की टीम लगी थी और इसे पूरा करने में एक साल का फील्ड वर्क लगा. इसमें वृक्षों की सटीक लोकेशन टैग करने के लिए एक मोबाइल एप्लिकेशन का उपयोग किया गया, जो प्रत्येक पेड़ के अक्षांश और देशांतर की जानकारी एक्सेल शीट पर दर्ज करता था. इसके बाद प्रत्येक पेड़ की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई को मापा जाता था. इसके अलावा, इससे उनके बायोमास की गणना भी की जाती है, जिससे यह पता चला कि उस पेड़ में कुल कितना जैविक पदार्थ मौजूद है. एक अन्य तरीके से यह भी निर्धारित किया जाता है कि इस बायोमास में कितना कार्बन मौजूद है और हर वर्ष कितना कार्बन टर्नओवर होता है.

    नई तकनीकों से आएगा बदलाव

    पूरे शहर में अलग अलग पेड़ों के प्रकार को ‘द ट्री काउंट' किताब में अलग-अलग रंगों से दर्शाया गया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि कौन-सी प्रजाति अधिक है, कौन सी कम है, कौन-से वृक्ष सबसे अधिक कार्बन अवशोषित कर रहे हैं, और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण वृक्षों की स्थिति क्या है.

    डॉ. हेगड़े ने अपने इंटरव्यू में माना कि टेक्नोलॉजी से इस काम को काफी आसान बनाया जा सकता है, लेकिन अभी भी इसके लिए पूर्ण रूप से स्वचालित प्रणाली की अभी कोई निर्धारित व्यवथा नहीं है. हालांकि, आईबीआईएन (इंडियन बायोडायवर्सिटी इनफार्मेशन नेटवर्क) में जंगलो का डेटा अवश्य है लेकिन यह किसी विशेष शहर के लिए विस्तृत जानकारी नहीं दे सकता है.

    बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और फॉरेस्ट इकोलॉजिस्ट डॉ. पूरबी ने झारखंड, छत्तीसगढ़ और अरुणाचल प्रदेश के जंगलों में फारेस्ट मैपिंग और असेसमेंट का काम किया है. उनको अपने काम के लिए भारत के राष्ट्रपति ने भटनागर पुरस्कार से सम्मानित भी किया है. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने बताया, "वेस्टर्न घाट और अंडमान का डेटा पहले के शोधकर्ताओं ने आईबीआईएन में जमा किया था. इसके अलावा, ईस्टर्न हिमालय जोन के प्रोजेक्ट का डेटा भी आईबीआईएन में सबमिट किया गया है. इसका उद्देश्य है कि जब पूरे भारत का डेटाबेस बनकर तैयार हो जाएगा, तो इसे सार्वजनिक डोमेन में नि:शुल्क उपलब्ध करा दिया जाएगा, ताकि आम लोग, शोधकर्ता और नीति-निर्माता इसे आसानी से एक्सेस कर, इसका इस्तेमाल कर सकें.”

    कैसी कैसी तकनीकी चुनौतियां

    पहले गिनती पारंपरिक तरीकों से की जाती थी, जैसे टेप से मापना, कागज और जीपीएस का इस्तेमाल इत्यादि. लेकिन अब इसमें आधुनिक तकनीकों जैसे रिमोट सेंसिंग, लाइट डिटेक्शन और रेंजिंग, ड्रोन और जीआईइस का सहारा लिया जाता है, जिससे आंकड़ों की सटीकता और कार्य की गति बढ़ी है. हालांकि तकनीक काफी आगे बढ़ चुकी है, लेकिन भारत में ट्री सेंसस के क्षेत्र में इसका उपयोग अभी भी सीमित है. आज भी अधिकतर स्थानों पर पारंपरिक तरीकों से ही वृक्षों की गणना की जाती है. विशेषज्ञों का मानना है कि पारंपरिक और आधुनिक तकनीकों के संयोजन से यह कार्य अधिक सटीकता और कम समय में किया जा सकता है.

    बेंगलुरु में सीसीई के वरिष्ठ एआई वैज्ञानिक डॉ. अर्पित यादव ने डीडब्ल्यू को बताया, "एआई तकनीक में कंप्यूटर विजन और ऑब्जेक्ट डिटेक्शन का उपयोग किया जाता है. ड्रोन जब जंगल या किसी क्षेत्र में उड़ते हैं, तो वह ऑब्जेक्ट डिटेक्शन के सहारे पेड़ों की पहचान करते हैं और उनकी संख्या गिनते हैं. यह डेटा फिर सर्वर पर भेजा जाता है, जिससे गणना तेज और सटीक हो जाती है.”

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    उन्होंने यह भी कहा, "जितना बेहतर टेक्नोलॉजिकल इंफ्रास्ट्रक्चर बनेगा, फील्ड विजिट की जरूरत उतनी ही कम हो जाएगी. लेकिन इसके लिए भारी निवेश की आवश्यकता होगी. अगर हमारे पास पर्याप्त ड्रोन और उन्नत तकनीक नहीं होगी, तो मनुष्यों को ज्यादा हस्तक्षेप करना पड़ेगा.”

    पारंपरिक और एआई आधारित विधियों के अलावा, कई देशों में वृक्ष गणना के लिए सैटेलाइट तकनीकों का भी उपयोग किया जाता है. इस प्रक्रिया में रेडियो वेव्स या माइक्रोवेव सिग्नल्स भेजे जाते हैं, जो सतह से टकराकर विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ प्रदान करते हैं.

    बीएचयू की प्रोफेसर डॉ. पूरबी के अनुसार, "माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंग टेक्नोलॉजी में भेजे गए साउंड वेव्स अलग-अलग सतहों से टकराकर विभिन्न प्रभाव उत्पन्न करते हैं. यदि वह किसी कच्चे घर से टकराते हैं, तो एक तरह का बाउंसिंग इफेक्ट आता है और अगर वे कंक्रीट से टकराते हैं, तो उसका प्रभाव अलग होता है.”

    पेड़ों का संरक्षण है बेहद जरूरी

    डॉ. पूरबी मानती हैं कि तकनीक ने वृक्ष गणना को बहुत आसान बना दिया है, लेकिन वह व्यक्तिगत फील्ड विजिट को अब भी अनिवार्य मानती हैं. वो कहती हैं, "सैटेलाइट यह नहीं बता सकता कि किसी क्षेत्र में चराई (ग्रेसिंग) हो रही है या नहीं, इसके लिए फील्ड विजिट जरूरी है.”

    पेड़ों को संरक्षित करने में स्थानीय लोगों की भूमिका बेहद अहम होती है. पेड़ों पर निर्भर समुदाय उनकी रक्षा में सहायक हो सकते हैं. उनके धार्मिक और सांस्कृतिक विश्वास, जैसे कुछ पेड़ों की पूजा करने की संस्कृति या उनका औषधीय महत्व संरक्षण में मदद कर सकता है. डॉ. पूरबी ने डीडब्ल्यू को बताया, "जो लोग जंगलों पर ज्यादा निर्भर होते हैं, वह जिम्मेदारी से उनका उपयोग करते हैं, जबकि जो कम निर्भर होते हैं, वह अधिक नुकसान पहुंचाते हैं.” उनके शोध में पाया गया कि झारखंड और अरुणाचल जैसे राज्यों में जंगल कम खराब हुए, जबकि मध्य प्रदेश में स्थिति खराब है. जबकि अरुणाचल का समुदाय पेड़ो पर ज्यादा निर्भर करता है और मध्य प्रदेश का कम.

    साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि इनवेसिव प्रजातियां जैसे वॉटर हायसिंथ और पार्थेनियम भी पेड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिन पर निगरानी रखना जरूरी है. ट्री सेंसस से इन पर नजर रखना भी आसान हो जाता है और पेड़ों की सुरक्षा की जा सकती है.

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